आदिवासियों संग हसदेव अरण्य बचाने आगे आएं, इस धरती पर जीवन बचाएं।

आदिवासियों संग हसदेव अरण्य बचाने आगे आएं, इस धरती पर जीवन बचाएं।
यह पेटीशन क्यों मायने रखती है

प्रिय पाठक,
भारत की अधिकांश आबादी हिंदी जानती समझती है, इसी हिंदी भाषा में एक सरल सी बात समझाने के लिए आदिवासियों को अपनी कई पीढ़ी कुर्बान करनी पड़ी है। उनका बचपन जिस जंगल के बीच गुजरा उन जंगलों को बचाने में उनकी जवानियाँ बीत रही हैं, और बुढापा उन जंगलों के उजड़ने के बाद के कठिन जीवन की कल्पना में।
भारत सहित दुनिया में कितनी ही भाषा-बोली बोलचाल में लायी जाती है, और कितनी ही भाषा-बोली खत्म हो चुकी हैं और खत्म होने की कगार पर हैं, ठीक इन जंगलों की तरह। इन जंगलों की भी अपनी भाषा है, बोली है, विधान है, संवेदना है, शिक्षा है, कर्तव्य है और अपना दर्द है। दुनिया की सभी भाषाओं और बोलियों में जंगल अपने अनुभव, अपनी संवेदना, अपने दर्द और अपनी भावनाओं को साझा कर रहे हैं कि, उन्हें किसी ने पैदा नहीं किया, किसी ने उन्हें बनाया नहीं, आप कौन होते हैं उन्हें कोयला खदान के लिए उजाड़ने वाले, इमारती और औद्योगिक उपयोग हेतु काटने वाले, कॉलोनी और बड़े बड़े प्रोजेक्ट के लिए उन्हें बर्बाद करने वाले!
प्रकृति प्रदत्त अनमोल उपहार हैं जंगल। वही जंगल जिनकी वजह से पर्यावरणीय संतुलन है, जैव विविधता है, दुनिया में सस्टेनेबिलिटी कायम है। वही जंगल जो ग्लोबल वार्मिंग को कंट्रोल करता है, जलवायु को स्थिर रखने में अपनी महती भूमिका निभाता है। पर मानव जाति क्या जंगलों के इन महत्व को समझ पा रहे हैं? दुनिया भर के जंगल इस सोच में हैं कि किस भाषा में वे मानव जाति को जंगलों के महत्व समझाएं!
क्या मानव जाति सिर्फ ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज की भाषा ही समझते हैं? नहीं। वर्तमान में दुनिया भर में कुछ ऐसे लालची प्रवृत्ति के मानव जातियों का जन्म हुवा है जिनके लिए ग्लोबल वॉर्मिंग, क्लाइमेट चेंज भी उनके व्यापार का एक जरिया बनता जा रहा है। अगर मानव जाति ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज की भाषा समझती तो आज जिस खात्मे की दहलीज़ पे ये दुनिया खड़ी है, खड़ी ना होती। इन लालची मानव जाति को दुनिया के अन्य सभ्य मनुष्यों और जीव जंतुओं के जीवन की कठिनाइयों तथा परेशानियों से कोई वास्ता नहीं है। इन धनपशुओं ने जल, जंगल,जमीन और प्राणवायु को खरीदना बेचना शुरू कर दिया है। इन्होंने तो दूसरे ग्रहों में तक बसने के लिए अपने अभियान शुरू कर दिए हैं। प्रकृति ने विज्ञान दिया साथ में विवेक भी दिया, पर अफसोस विज्ञान और टेक्नोलॉजी जितनी तरक्की कर रहे हैं विवेक और एथिक्स पीछे छूट गए हैं। अगर आपके पास विवेक और एथिक्स हैं तो आइये उन जंगलों को बचाइए। पर आप आएंगे नहीं आपको इन सरकारों ने पहले से ही कई सारे टॉस्क दे रखे हैं, जिन्हे पूरा करना आप अपना परम कर्तव्य समझते हैं।
हसदेव अरण्य छत्तीसगढ़ जिसमें परसा कोल ब्लॉक , तारा, केते बासन कोल ब्लॉक हैं, पर्यावरण और जैव विविधता के मामले में अनमोल है। यहां कई प्रकार के औषधीय गुणों वाले दुर्लभ पेड़ पौधे हैं, विलुप्तप्रायः पशु पक्षी हैं। समस्त जीव जंतुओं का प्राकृतिक आवास है। यह जंगल सहअस्तित्व और सहजीवन का बेहतरीन पोषक है। यहाँ रहने वाले इंडीजन/आदिवासी इन जंगलों पर ही आश्रित हैं, जीविका का साधन वे इन्हीं जंगलों से जुटाते हैं। वे जानते हैं कि ये जंगल उनके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं, वे बस नहीं जानते कि देश के बाकी लोगों को इन जंगलों का महत्व पता है कि नहीं। उन्हें आज आपके मजबूत हाथ की जरूरत है, अपने हाथ बढ़ा दीजिये प्लीज़.....।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और राज्य की भूपेश बघेल सरकार भारतीय वन्य जीव संस्थान और भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद के रिपोर्ट की अनदेखी करके हसदेव अरण्य के कोयला खनन को मंजूरी दे दी है, जिसमें लाखों की संख्या में पेड़ों को काटने का अनुमान है। यह क्षेत्र संविधान के पाँचवी अनुसूची तथा पेसा एक्ट के अंतर्गत भी आता है परंतु संविधान में दिए इन प्रावधानों का भी धड़ल्ले से उलंघन किया गया है। गवर्नमेंट ने पर्यावरणीय और जैव विविधता की परिस्थितियों के आंकलन को दरकिनार कर और स्थानीय ग्राम सभाओं के निर्णय को भी ताक में रखकर कोयला खनन को मंजूरी दे दी है।
पिछले साल अक्टूबर में हसदेव बचाओ पैदल यात्रा, हसदेव अरण्य के मदनपुर गाँव से 300 किमी दूर राज्य की राजधनी रायपुर पहुंची थी, जिसका कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला और हसदेव अरण्य का हरा भरा, जीवट, और मनोरम जंगल उजड़ने के कगार पर खड़ा है। कृपया इस पिटीशन के माध्यम से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार से आग्रह करें कि तत्काल पेड़ों की कटाई रुकवा कर खनन प्रोजेक्ट को ख़ारिज करें तथा सम्पूर्ण मानव जाति सहित समस्त जीव-जंतुओं के हित के लिए हसदेव अरण्य को उजड़ने से बचाएं।
एक कोयतुर
आशीष एस. धुर्वे
ashu.sdhurwey44@gmail.com